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आलेख : कन्हैया कोष्टी
अहमदाबाद (24 मई, 2020)। आज के दौर में जिस आयु में किशोर व युवा स्कूल में पढ़ाई करते हैं या किसी खेल विशेषकर मोबाइल गेम्स आदि में डूबे रहते है या फिर घूमने-फिरने का आनंद लेता है, उसी छोटी-सी उम्र में करतार सिंह सराभा नामक महान क्रांतिकारी ने देश के लिए स्वंय को भेंट चढ़ा दिया। करतार को स्वतंत्रता आंदोलन का ‘अभिमन्यु’ भी कहा जाता है, जिसने मात्र 19 वर्ष की आयु में देश के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी।
मरते-मरते इस वीर बलिदानी ने बस इतना ही कहा, ‘माँ भारती की स्वतंत्रता के लिए बार-बार जन्म लूँगा और उसे स्वतंत्र कराऊँगा।’ शूरवीर, बलिदानी, त्यागी, साहसी स्वतंत्रता सेनानी का नाम था, करतार सिंह साराभा ने अपने लहू से भारत की स्वतंत्रता संग्राम के पन्नों में जो अध्याय जोड़ा, वह आज भी एक अभूतपूर्व दृष्टांत है। आज इस महान कांतिकारी करतार सिंह सराभा की 124वीं जयंती है।
19 वर्ष की अल्पायु में करतार सिंह ने 16 नवंबर, 1915 को हँसते-हँसते अपने प्राण माँ भारती पर न्योछावर कर दिए थे। यदि आज के युवक सराभा के बताये हुए मार्ग पर चलें, तो न केवल अपना, अपितु देश का मस्तक भी ऊँचा कर सकते हैं।

बंगभंग विरोधी आंदोलन ने बोये हृदय में क्रांति के बीज



करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई, 1896 को पंजाब में लुधियाना के सराबा ग्राम में हुआ था। उनकी माता का नाम साहिब कौर और पिता का नाम मंगल सिंह था। करतार सिंह सराभा की एक छोटी बहन भी थी, जिसका नाम धन्न कौर था। करतार सिंह की बाल्यावस्था में ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। उनके दादा बदन सिंह सराभा ने उनका और उनकी छोटी बहन का लालन-पालन किया।
करतार सिंह ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा लुधियाना में ही प्राप्त की। 9वीं कक्षा पास करने के पश्चात् वे अपने चाचा के पास उड़ीसा (अब ओडिशा) चले गये, जो उड़ीसा के वन विभाग के अधिकारी थे। करतार ने वहाँ हाई स्कूल में दाखिला लिया। उस समय उड़ीसा बंगाल राज्य के अंतर्गत आता था, जिसका अंग्रेजों ने विभाजन करने का निर्णय कर लिया था।
फलस्वरूप 1905 में बंगाल विभाजन के विरुद्ध क्रांतिकारी आंदोलन प्रारम्भ हो चुका था। बंगभंग विरोधी आंदोलन से प्रभावित होकर करतार सिंह सराभा क्रांतिकारियों के समुह में सम्मिलित हो गये। यद्यपि उन्हें इसके लिये कभी बन्दी नहीं बनाया गया, परंतु उनके हृदय में क्रांतिकारी विचार की जड़ें गहराई तक पहुँच गई थीं।

महान क्रांतिकारी लाला हरदयाल से हुई भेंट



1911 में करतार सिंह हाई स्कूल करने के पश्चात अपने कुछ संबंधियों के साथ अमेरिका चले गये। एक वर्ष बाद यानी 1912 में करतार सिंह सैन फ़्रांसिस्को गए। सैन फ़्रांसिस्को पहुँचने पर एक अमेरिकन अधिकारी ने उनसे पूछा “तुम यहाँ क्यों आये हो ?” इस पर करतार सिंह ने निडरता के साथ उत्तर देते हुए कहा, “मैं उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से आया हूँ।” वे पढ़ाई कर हवाई जहाज बनाना और चलाना सीखना चाहते थे, परंतु दुर्भाग्यवश करतार सिंह का उच्च शिक्षा प्राप्त करने का स्वप्न पूरा न हो सका।
यद्यपि अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने एक कारखाने में काम करना शुरू कर दिया। इसी दौरान उनका संपर्क बंगाल के महान क्रांतिकारी लाला हरदयाल से हुआ, जो अमेरिका में रहते हुए भी निरंतर भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने सैन फ़्रांसिस्को में रह कर कई स्थानों का दौरा किया और भाषण दिये थे। करतार सिंह सराभा उनके साथ रहने लगे और लाला हरदयाल के प्रत्येक कार्य में उनका सहयोग करने लगे।

गदर समाचार पत्र के बने पंजाबी संस्करण के सम्पादक



25 मार्च, 1913 को अमेरिका के ओरेगन प्रान्त में भारतीयों की एक बहुत बड़ी सभा का आयोजन हुआ, जिसके मुख्य वक्ता लाला हरदयाल थे। लाला हरदयाल ने इस सभा में भाषण देते हुए कहा, “मुझे ऐसे युवकों की आवश्यकता है, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण दे सकें।” इस पर सर्वप्रथम करतार सिंह सराभा ने उठ कर अपने आपको प्रस्तुत किया।
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच लाला हरदयाल ने सराभा को अपने गले से लगा लिया। इसी सभा में ‘गदर’ नाम से एक समाचार पत्र प्रकाशित करने का निश्चय किया गया, जिसका उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता का प्रचार करना था। इसे कई भाषाओं में प्रकाशित करने का लक्ष्य रखा गया। साथ ही विश्व के प्रत्येक देश में, जहाँ भारतवासी रहते थे, पत्रिका को भजने का निर्णय लिया गया। 1 नवंबर, 1913 को ‘गदर’ समाचार-पत्र का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ, जिसके पंजाबी संस्करण के सम्पादक का कार्य करतार सिंह सराभा को सौंपा गया। गदर पत्रिका अंग्रेजी में प्रकाशित होती थी तथा इसका अनुवाद हिंदी, उर्दू, पंजाबी और गुजराती में होता था।

4 हज़ार भारतीयों के साथ बनाई विद्रोह की योजना



1914 में जब ‘प्रथम विश्व युद्ध’ प्रारम्भ हुआ, तो अंग्रेज़ युद्ध में बुरी तरह फँस गये। ऐसी स्थिति में ‘ग़दर पार्टी’ के कार्यकर्ताओं ने भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए भारत में विद्रोह कराने की योजना बनाई। जिसमें अमेरिका में रहने वाले 4 हज़ार भारतीयों ने उनका सहयोग किया। उन 4 हज़ार भारतीयों ने अपना सब कुछ बेच कर गोला-बारूद और पिस्तौ लें ख़रीदीं और जहाज में बैठ कर भारत के लिए रवाना हो गये, परंतु भारत पहुँचने से पूर्व ही उनका भेद खुल गया और अंग्रेजी सिपाहियों ने उन्हें गोला-बारूद सहित मार्ग में ही भारत के समुद्री तट के किनारे पहुँचने से पूर्व ही बन्दी बना लिया। करतार सिंह सराभा अपने साथियों के साथ किसी प्रकार से बच निकलने में सफल रहे और पंजाब पहुँच कर उन्होंने गुप्त रूप से विद्रोह के लिए तैयारियाँ आरम्भ कर दीं।
भारत में विप्लव की आग जलाने के उद्देश्य से उन्होंने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, रासबिहारी बोस, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि क्रांतिकारियों से भेंट की। उनके प्रयत्नों से जालंधर की एक बगीची (उद्यान) में एक गोष्ठी आयोजित की गई, जिसमें पंजाब के सभी क्रांतिकारियों ने भाग लिया। इस समय करतार सिंह सराभा की आयु केवल 19 वर्ष की थी।

छिप कर भागना न आया रास



करतार और सभी क्रांतिकारियों ने 21 फरवरी, 1915 को समस्त भारत में क्रांति के लिए निश्चित किया, परंतु 16 फरवरी को ब्रिटिश सरकार को इसकी सूचना मिल गई और चारों ओर गिरफ्तारियाँ होने लगीं। बंगाल तथा पंजाब में गिरफ्तारियों का ताँता लग गया। रासबिहारी बोस किसी प्रकार लाहौर से वाराणसी होते हुए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चले गये और वहाँ से छद्म नाम से पासपोर्ट बनवा कर जापान चले गये। रासबिहारी बोस ने लाहौर छोड़ने से पूर्व करतार सिंह सराभा को क़ाबुल चले जाने का परामर्श दिया।
अत: करतार भी क़ाबुल के लिए रवाना हो गए, परंतु जैसे ही वे वज़ीराबाद (हाल में अफग़ानिस्तान में) पहुँचे, तो उनके मन में विचार आया, ‘इस तरह छिप कर भागने से अच्छा है कि मैं देश के लिए फाँसी के फंदे पर चढ़ कर अपने प्राण न्योछावर कर दूँ।’ करतार सिंह सराभा क़ाबुल भाग जाने की बजाए वज़ीराबाद की फौजी छावनी में चले गये और वहाँ उन्होंने फौजियों के समक्ष भाषण देते हुए कहा, “भाइयों, अंग्रेज़ विदेशी हैं। हमें उनकी बात नहीं माननी चाहिए। हमें आपस में मिल कर अंग्रेज़ी शासन को समाप्त कर देना चाहिए।” करतार ने बंदी होने के लिए ही ऐसा भाषण दिया था, फलत: उन्हें अंग्रेजों ने बंदी बना लिया।

हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये



करतार सिंह सराभा पर हत्या, डाका, शासन को उलटने का अभियोग लगाकर ‘लाहौर षड़यन्त्र’ के नाम से मुकदमा चलाया गया, उनके साथ 63 अन्य क्रांतिकारियों पर भी मुकदमा चलाया गया। अदालत में करतार ने अपने अपराध को स्वीकार करते हुए ये शब्द कहे, “मैं भारत में क्रांति लाने का समर्थक हूँ और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अमेरिका से यहाँ आया हूँ। यदि मुझे मृत्युदंड दिया जायेगा, तो मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझूँगा, क्योंकि पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार मेरा जन्म फिर से भारत में होगा और मैं मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए काम कर सकूँगा।”
16 नवम्बर, 1915 को करतार सिंह सराभा हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये। जज ने उनके मुकदमे का निर्णय सुनाते हुए कहा था, “इस युवक ने अमेरिका से लेकर हिन्दुस्तान तक अंग्रेज़ शासन को उलटने का प्रयास किया। इसे जब और जहाँ भी अवसर मिला, अंग्रेज़ों को हानि पहुँचाने का प्रयत्न किया। इसकी अवस्था बहुत कम है, किन्तु अंग्रेज़ी शासन के लिए बड़ा भयानक है।” करतार सिंह की शहादत पर तत्कालीन महान क्रांतिकारी भाई परमानन्द जी ने उनके जेल के जीवन का वर्णन करते हुए लिखा है, “सराभा को कोठरी में भी हथकड़ियों और बेड़ियों से युक्त रखा जाता था। उनसे सिपाही बहुत डरते थे। उन्हें जब बाहर निकाला जाता था, तो सिपाहियों की बड़ी टुकड़ी उनके आगे-पीछे चलती थी। उनके सिर पर मृत्यु सवार थी, किन्तु वे हँसते-मुस्कराते रहते थे। वे भारत माँ के एक ऐसे लाल थे, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए असंख्य कष्ट सहे और यहाँ तक कि अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। ऐसे वीर सपूत का नाम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में हमेशा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा।”

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