संविधान निर्माताओं की ‘निश्चिंतता’ भारी पड़ गई बहुसंख्यक हिन्दुओं को
कांग्रेस-वामपंथियों ने ‘30’ को तोड़-मरोड़ कर बहुसंख्यकों से किया घोर अन्याय
अल्पसंख्यक संस्थान निरंकुश, केवल हिन्दू संस्थानों पर ही नियंत्रण क्यों ?
तुष्टीकरण की नीति से भारत की महान संस्कृति व धरोहर पर किया गया प्रहार
वोट बैंक की राजनीति करने वालों की करतूतों से अंबेडकर भी होंगे लज्जित !
अभिमत : कन्हैया कोष्टी
अहमदाबाद (28 मई, 2020)। कोरोना वायरस से फैली वैश्विक महामारी कोविड 19 के कारण देश में गत 25 मार्च से लॉकडाउन चल रहा है और इस दौरान दूरदर्शन से लेकर कई निजी मनोरंजन चैनलों पर प्राचीन-पुरानत एवं भव्य-दिव्य भारत की महानतम् धर्म-संस्कृति को प्रकट करने वाले कई धारावाहिकों का प्रसारण हो रहा है।
भारत की पुरानी एवं आधुनिक-नई पीढ़ी दोनों को ही लॉकडाउन की अवधि के दौरान ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ से लेकर अनेक धारावाहिकों से परिचित होने का अवसर मिला है। इन धारावाहिकों में स्थान-स्थान पर गुरु, गुरु-शिष्य परंपरा, गुरुकुल एवं आश्रम दिखाए जा रहे हैं। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि आख़िर 5 सहस्त्र वर्ष पूर्व यानी भगवान श्री कृष्ण के अवतार तक चले व देखे गए गुरु एवं गुरुकुल स्वतंत्र भारत में कहीं दिखाई क्यों नहीं देते ?
आज जब देश में बड़े-बड़े अंग्रेज़ी शिक्षा संस्थान फल-फूल रहे हैं तथा इस्लामिक शिक्षा संस्थानों का भी कोई टोटा नहीं है, तब मूल भारत के गुरु, गुरुकुल, गुरु, शिष्य, आश्रम आदि सब कहाँ लुप्त हो गए ? उन्हें धरती निगल गई या आसमान खा गया ?
इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है भारत की ‘धर्मनिरपेक्षता’। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने धर्मनिरपेक्षता की आधारशिला पर नए युग का सूत्रपात किया। कुछ कट्टर विचारधारा वालों की उचित आपत्ति के पश्चात् भी भारत ने विशेष रूप से तत्कालीन नेताओं, जो मुख्य रूप से व स्वाभाविक रूप से हिन्दू थे, ने भारत की जड़ों से जुड़ी सहिष्णु संस्कृति को अपनाया।
सहिष्णुता का इतना बड़ा मूल्य ?
यही कारण है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना, परंतु क्या राष्ट्र निर्माताओं एवं नागरिकों के लिए संविधान बनाने वालों ने सपने में भी यह सोचा था कि उनकी भावी पीढ़ी इस धर्मनिरपेक्षता का उपयोग भारत की मूलभूत संस्कृति, भारत के बहुसंख्यक समाज के साथ अन्याय के लिए करेगी ?
उत्तर है, ‘कदापि नहीं।’ डॉ. बाबासाहब अंबेडकर सहित सभी संविधान निर्माताओं ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों एवं पिछड़े-दबे-कुचले-दलित समाज के लोगों के अधिकारों का पूरा ध्यान रखते हुए एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणराज्य की स्थापना का संकल्प किया था, जिसमें सभी नागरिकों को समान अधिकार हों।
संविधान में अनुच्छेद 14 के माध्यम से सभी भारत वासियों को समानता का अधिकार दिया गया, तो अनुच्छेद 30 के माध्यम से धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए कुछ विशेष प्रावधान किए गए।
यद्यपि इन प्रावधानों का उद्देश्य अनुच्छेद 14 के समानता के अधिकारों का हनन करने का कतई नहीं था, परंतु फिर भी स्वतंत्र भारत में पिछले 72 वर्षों से ऐसा ही हुआ है, होता आ रहा है, हो रहा है और यदि अनुच्छेद 30 में अब भी आवश्यक संशोधन नहीं किया गया, तो आगे भी होता रहेगा।
ट्विटर पर क्यों ट्रेंड कर रहा #आर्टिकल30हटाओ ?
वैसे बात अनुच्छेद की निकलती है, तो सबसे पहले दृष्टि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं गृह मंत्री अमित शाह पर ही पड़ती है। लोगों को उनसे ही आशा रहती है कि वे संविधान की मूल भावना को चोट पहुँचाने वाली अनुच्छेदओं को ध्वस्त करेंगे, क्योंकि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा कर मोदी-शाह ऐसा कर चुके हैं।
आप सोच रहे होंगे कि अनुच्छेद 30 है क्या ? तो इसका उत्तर है कि अनुच्छेद 30 भारत में हिन्दुओं को छोड़ कर इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन तथा पारसी सहित किसी भी धार्मिक अल्पसंख्यक को शैक्षणिक संस्थान के स्वतंत्र प्रबंधन का अधिकार देता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि इन धार्मिक संस्थानों में शासन-प्रशासन, यहाँ तक कि विधि एवं न्यायालय भी हस्तक्षेप नहीं कर सकते। यही कारण है कि आज अचानक ट्विटर पर #आर्टिकल30हटाओ ट्रेंड कर रहा है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी-BJP) नेता कैलाश विजयवर्गीय ने भी आज अनुच्छेद 30 को हटाने की मांग करते हुए ट्वीट किया।
क्या हैं अनुच्छेद 30 के प्रावधान ?
- समानता के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए भारत में अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ अधिकारों की रक्षा करने का प्रावधान अनुच्छेद 30 में शामिल है।
- धर्म और भाषा के आधार पर सभी अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के अनुसार शैक्षणिक संस्थानों को स्थापित और प्रबंध करने का अधिकार है।
- राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि संपत्ति के अधिग्रहण के लिए जरूरी राशि समुदाय के बजट से अधिक ना हो। इसलिए, यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि अनुच्छेद के तहत प्रत्याभूत अधिकार प्रतिबंधित या रद्द ना किया गया हो।
- अनुच्छेद 30 में एक स्तरीय खेल का मैदान बनाने के लिए भी एक उपअनुच्छेद है। इस अनुच्छेद के अनुसार, देश की सरकार धर्म या भाषा की वजह से किसी भी अल्पसंख्यक समूह द्वारा संचालित शैक्षिक संस्थानों को सहायता देने में कोई भी भेदभाव नहीं करेगी।
1147 गुना घटे गुरुकुल, 150 गुना बढ़े मदरसे
ट्विटर पर ट्वीट की गई एक जानकारी के अनुसार भारत जब स्वतंत्र हुआ अर्थात् 1947 में देश में मदरसों की संख्या केवल 284 थी, जबकि गुरुकुलों की संख्या 42,000 थी, परंतु वामपंथी विचारअनुच्छेद से प्रभावित कांग्रेस सरकारों ने वोट बैंक की राजनीति तथा हिन्दुओं की सहिष्णुता का दुरुपयोग करते हुए अनुच्छेद 30 को ऐसा तोड़ा-मरोड़ा कि स्वयं अंबेडकर भी लज्जित हो जाएँ !
वास्तव में अंबेडकर सहित संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 14 जोड़ कर समानता का अधिकार पहले ही सुनिश्चित कर दिया था। ऐसे में उन्हें अनुमान भी नहीं था कि जिस संविधान में वे जगह-जगह अल्पसंख्यक शब्द प्रयोग कर रहे हैं, उससे बहुसंख्यक हिन्दुओं के साथ भविष्य में अन्याय होगा। वे तो यही मान कर चल रहे थे कि बहुसंख्यक होने के नाते हिन्दुओं को स्वत: ही सारे अधिकार प्राप्त होंगे।
इसीलिए उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान किए, परंतु बाद के शासकों ने अनुच्छेद 30 के तहत जहाँ एक ओर अल्पसंख्यक विशेषकर इस्लामिक शैक्षणिक संस्थानों को धड़ल्ले से अनुमतियाँ दीं और दूसरी ओर हिन्दू धार्मिक संस्थानों को शासन-विधि-न्याय व्यवस्था के दायरे में जकड़ लिया।
इसी कारण हिन्दू शैक्षणिक संस्थानों की संख्या सिमटती गई और ट्विटर स्रोत की 2019 तक की जानकारी के अनुसार आज भारत में मदसों की संख्या 39,000 पर पहुँच गई है, जबकि गुरुकुल सिमट कर 34 पर आ चुके हैं।
लोकतंत्र के चारों स्तंभों का हिन्दू धर्म संस्थानों पर पहरा
अनुच्छेद 30 के कारण मिली छूट के चलते जहाँ अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान निरंकुश हैं। वहाँ न कोई जाँच होती है, न कोई न्याय, जिससे बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की भी ख़ुली छूट मिलती है। दूसरी ओर हिन्दू धार्मिक संस्थानों, धर्म स्थानों, गुरुकुलों पर सभी प्रकार के नियंत्रण लागू हैं।
लोकतंत्र के चारों स्तंभ यानी विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और पत्रकारिता का हिन्दू धर्म संस्थानों पर कड़ा पहरा रहता है। काशी विश्वनाथ, तिरुपति, शबरीमाला मंदिरों से लेकर हर बड़े-छोटे मंदिरों, हिन्दू धार्मिक ट्रस्टों के मामलों में सुप्रीम कोर्ट तक हस्तक्षेप करता है, क्योंकि हिन्दुओं व उनके धार्मिक संस्थानों को अनुच्छेद 30 की तरह स्वायत्तता नहीं है।
ऐसे में अनुच्छेद 14 का स्वत: ही हनन हो जाता है। यद्यपि संविधान निर्माताओं का अनुच्छेद 30 को जोड़ने के पीछे समानता के अधिकार को आघात लगाने का कोई इरादा नहीं था। यदि ऐसा होता, तो वे अनुच्छेद 30 से पहले अनुच्छेद 14 में समानता के अधिकार का प्रावधान ही क्यों करते ?
क़ुरान-बाइबल की शिक्षा को छूट, तो वेदों-पुराणों के पाठ कौन पढ़ाएगा ?
विश्व में क़ुरान और बाइबल में दिए गए उपदेशों की शिक्षा देने के लिए अनेक देश हैं। दुनिया में इस्लाम व ईसाई धर्म बहुल देशों की कोई क़मी नहीं है, परंतु प्राचीन-पुरातन, दिव्य-भव्य भारत की धरोहर समान वेदों एवं पुराणों की शिक्षा देने का उत्तरदायित्व किसका है ? क्या आप यह आशा कर सकते हैं कि साउदी अरब, अफग़ानिस्तान या पाकिस्तान में वेद-पुराण पढ़ाए जाएँगे या अमेरिका-ब्रिटेन में इनकी शिक्षा दी जाएगी ?
निश्चित रूप से जो धरोहर एवं विरासत भारत की है, उसे आगे बढ़ाने का कार्य भारत को ही करना होगा। भारत में अनुच्छेद 30 के तहत मदरसों में इस्लामिक शिक्षा तथा मिशनरीज़ में ईसाइयत की शिक्षा तो दी जा रही है, क्योंकि अनुच्छेद 30 में कहीं यह नहीं लिखा है कि धार्मिक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि हिन्दू समाज को सनातन संस्कृति की धरोहर समान वेद, पुराण, उपनिषद्, गीता आदि की शिक्षा कौन देगा और कहाँ देगा ? इसका उत्तर एक ही है अनुच्छेद 30 को उसकी मूल भावना बनाए रखते हुए तत्काल समाप्त किया जाए तथा अनुच्छेद 14 यानी समानता के अधिकार को वास्तविक रूप दिया जाए।
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