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मंथन : कन्हैया कोष्टी

अहमदाबाद। भगवान विष्णु के ज्ञान अवतार महर्षि व्यास द्वारा रचित ग्रंथ ‘महाभारत’ में सबसे लम्बा जीवन जीने वाले भीष्म पितामह को तो सभी जानते होंगे। भीष्म पितामह का नाम सुनते ही लोगों के मन में बी. आर. चौपड़ा कृत प्रसिद्ध धारावाहिक ‘महाभारत’ के भीष्म पितामह अर्थात् मुकेश खन्ना का धवल वस्त्र धारी रूप प्रकट हो गया होगा, परंतु आज हम आपको उन भीष्म पितामह के उदय की कथा सुनाने जा रहे हैं।

अधिकांश लोगों को लगता है कि भीष्म पितामह को इच्छा-मृत्यु का ‘वरदान’ प्राप्त था, परंतु वास्तविकता यह है कि यह वरदान उन्हें एक ‘अभिशाप’ के रूप में दिया गया था। वरदान को लेकर भले ही शुभ मान्यताएँ हों, परंतु भीष्म पितामह को तो यह वरदान दंड स्वरूप मिला था। क्यों और कैसे दंड स्वरूप था भीष्म को मिला वरदान ? यदि इस प्रश्न का एक वाक्य में उत्तर है, तो वह यह है कि सृष्टि में जन्म-मृत्यु का चक्र मृत्युलोक अर्थात् हमारी पृथ्वी पर चलता है और हमारे शास्त्रों के अनुसार मृत्युलोक में आना सबसे बड़ा दंड है। चूँकि भीष्म ने पूर्व में ऐसा घोर पाप किया था, जिसकी सबसे बड़ी सज़ा कोई थी, तो वह थी उन्हें मृत्युलोक में भेजना और वह भी इच्छा-मृत्यु के वरदान के साथ। तो भीष्म पितामह का जन्म ही दंडस्वरूप था।

पहले जानिए भीष्म का अर्थ

हमने जो अब तक देखा और सुना, उससे हमारे मन में भीष्म का एक सीमित अर्थ ये हो गया है कि जो व्यक्ति जीवन में अत्यंत कठोर संकल्प लेता है, उसके इस कार्य के साथ भीष्म विशेषण जुड़ जाता है, परंतु भीष्म का वास्तविक अर्थ होता है भयावह। यद्यपि महाभारत के देवव्रत ने जो अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली थी, वह भयावह एवं कठोर ही थी। इसीलिए उनकी प्रतिज्ञा के साथ भीष्म विशेषण जुड़ा।

पिता के लिए पुत्र का अभूतपूर्व महाबलिदान

महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह का वास्तविक नाम देवव्रत था, जो हस्तिनापुर के महाराज शांतनु और गंगा के पुत्र थे। अधिकांश लोग इतना ही जानते हैं कि एक मछुआरे की बेटी सत्यवती से शांतनु को प्रेम हुआ, परंतु सत्यवती के पिता ने विवाह के लिए शर्त रख दी कि हस्तिनापुर का भावी नरेश सत्यवती की कोख से जन्म लेने वाला पुत्र ही बनेगा। पिता शांतनु का सत्यवती से विवाह कराने के लिए गंगापुत्र देवव्रत ने यह भीष्म प्रतिज्ञा ली कि वे आजीवन अविवाहित रहेंगे, जिससे न तो उनकी संतान होगी और न ही शांतनु के लिए सत्यवती के पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने में बाधा आएगी, परंतु महाभारतकाल में देवव्रत या भीष्म पितमाह के साथ यह जो सारा घटनाक्रम घट रहा था, वह एक प्रकार का मृत्युलोक का महादु:ख था। अन्यथा मृत्युलोक में आने से पूर्व तो देवव्रत एक देवता थे।

वसु ‘द्यौ’ को लेना पड़ा देवव्रत के रूप में जन्म

आइए, अब आपको बताते हैं कि भीष्म पितामह वास्तव में कौन थे ? शांतनु और गंगा के पुत्र देवव्रत/भीष्म पितामह मृत्युलोक पर अवतरित होने से पूर्व देवलोक में वसु थे और उनका नाम द्यौ था। वसु का अर्थ होता है आठ देवताओं का गण, जिनमें पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य, द्यौ (आकाश), अग्नि, चंद्रमा तथा नक्षत्र हैं। इनमें जो द्यौ हैं, वही मृत्युलोक में देवव्रत के रूप में सशाप-सदंड अवतरित हुए थे।

पत्नीहठ से हुई द्यौ की दुर्गति 

एक बार कुछ वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। इसी पर्वत पर महर्षि वशिष्ठ का आश्रम था। जो वसु पत्नियों सहित भ्रमण को निकले थे, उनमें द्यौ भी शामिल थे। उस समय महर्षि वशिष्ठ आश्रम में नथी, परंतु उनकी प्रिय गायें कामधेनु एवं उसकी बछड़ी नंदिनी बंधी हुई थीं। इन सुंदर गायों को देखते ही वसुओं के मन में उन्हें पाने की इच्छा जागी। विशेष रूप से द्यौ की पत्नी तोह हठ कर बैठी कि वह गायें लेकर ही जाएगी। पत्नीहठ के वशीभूत द्यौ ने तथा अन्य वसुओं ने महर्षि वशिष्ठ के आश्रम से उनकी दोनों गायों कामधेनु व नंदिनी को चुरा लिया। वशिष्ठ जब आश्रम में लौटे, तो अपनी प्रिय गायों को न पाकर क्रुद्ध हो गए। उन्होंने दिव्य दृष्टि से गायों को वसुओं द्वारा चुरा ले जाने का घटनाक्रम देख लिया। क्रोधित वशिष्ठ ने वसुओं को उसी समय श्राप दिया कि उन्हें मनुष्य रूप में पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ेगा। क्रुद्ध वशिष्ठ के समक्ष वसु क्षमायाचना करना लगे। इस पर महर्षि वशिष्ठ ने द्यौ को छोड़ कर शेष सभी वसुओं को यह कह क्षमा कर दिया कि उन्हें मनुष्य जन्म से शीघ्र मुक्ति मिल जाएगी, परंतु चूँकि गायें द्यौ ने चुराई थीं, अत: वशिष्ठ ने द्यौ को लम्बे समय तक संसार में रहने और दु:खों को भोगने का अभिशाप दिया, जो द्वापर युग में शांतनु-गंगापुत्र देवव्रत के रूप में अवतरित हुए।

भीष्म जन्म का सार 

देवव्रत या भीष्म पितामह, जिन्हें इच्छा-मृत्यु के वरदान के साथ जन्म मिला था, परंतु इसके पश्चात् भी यह जन्म उन्हें प्राप्त अभिशाप का फल ही था। इस भीष्म कथा का सार यही है कि पृथ्वी लोक में जन्म लेना ही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। साधारण मनुष्य के लिए तो यह अभिशाप है। मनुष्य ही नहीं, जितनी भी चर-अचर योनियाँ हैं, वे किसी न किसी पूर्वजन्म के कर्मों या पापों के कारण ही जन्म एवं मृत्यु के चक्र में फँसी हुई हैं। अत: मनुष्य योनि, जिस एकमात्र योनि को विवेकपूर्ण बुद्धि प्राप्त है, इस योनि में जन्म लेने वाले हर मनुष्य को अपने विवेक से जीवन का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष को बनाना चाहिए, ताकि वह उस परम् आत्मा के साथ एकाकार हो सके, जहाँ से उसकी उत्पत्ति हुई थी और माया के प्रभाव के कारण वह कई जन्मों से जन्म-मृत्यु के चक्र में भटक रहा था।

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